Prem Pawan
मेरे गाँव में एक अनपढ़ बुजुर्ग को बहुत सारे दोहे याद थे और वे दोहे के मर्म भी समझते थे, हम सब बच्चों को दोहे के माध्य्म से समझाते थे....
करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात है, सिल पर परत निसान।।
वृंद के दोहे
दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै, दुख काहे को होय।।
कबीर के दोहे
मैं इन दोहाकारों को बार-बार प्रणाम करती हूँ, आश्चर्यचकित होती हूँ इनकी लेखनी पर जिसे अनपढ़ भी पढ़ गुन लेते हैं...
बस यहीं से ललक हुई कि मुझे इनके चरणों की धूल मिल जाय और मैं भी दोहे लिख सकूँ....
महान संत कबीर, रहीम, तुलसीदास जी अब इस दुनिया में नहीं हैं। मगर उनकी कही गई गूढ़ बातें आज भी हम सभी के लिए अँधेरे में मशाल का कार्य करती हैं।
कोई भी रचनाकार न हिन्दू होता है। न मुसलमान वह दुनयावी होने के वावजूद जाति धर्म से ऊपर होता है
रचनाकार की रचनाएँ निकट सबंधी की तरह सबके जीवन में शामिल होकर प्रेम पातीं हैं।
दोहा जितना देखने में सरल लगता है उतना ही लिखने में कठिन है, दो तीन पन्नों के भाव को दो लाइन में विधान सहित लिखना गागर में सागर भरने जैसा होता है...।
मैं आभारी हूँ आदरणीय विजय राठौर सर जी का जिनकी प्रेरणा और मार्गदर्शन में तीन सौ इकतीस दोहों से यह काव्यपुस्तक तैयार हुई है।
आभार व्यक्त करती हूँ आदरणीय प्रो सतीश देशपांडे निर्विकल्प जी का जिनका मार्गदर्शन समय-समय पर मिलता रहा।
प्रिय अनुज मिलन जी का भी हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ जिन्होंने मेरे परिचय में दोहे रच दिए।
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Product Details
- Format: Hardcopy
- Book Size:5 x 8
- Total Pages:104 pages
- Language:HINDI
- ISBN:978-9390707614
- Publication Date:June 8 ,2021
Product Description
मेरे गाँव में एक अनपढ़ बुजुर्ग को बहुत सारे दोहे याद थे और वे दोहे के मर्म भी समझते थे, हम सब बच्चों को दोहे के माध्य्म से समझाते थे....
करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात है, सिल पर परत निसान।।
वृंद के दोहे
दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै, दुख काहे को होय।।
कबीर के दोहे
मैं इन दोहाकारों को बार-बार प्रणाम करती हूँ, आश्चर्यचकित होती हूँ इनकी लेखनी पर जिसे अनपढ़ भी पढ़ गुन लेते हैं...
बस यहीं से ललक हुई कि मुझे इनके चरणों की धूल मिल जाय और मैं भी दोहे लिख सकूँ....
महान संत कबीर, रहीम, तुलसीदास जी अब इस दुनिया में नहीं हैं। मगर उनकी कही गई गूढ़ बातें आज भी हम सभी के लिए अँधेरे में मशाल का कार्य करती हैं।
कोई भी रचनाकार न हिन्दू होता है। न मुसलमान वह दुनयावी होने के वावजूद जाति धर्म से ऊपर होता है
रचनाकार की रचनाएँ निकट सबंधी की तरह सबके जीवन में शामिल होकर प्रेम पातीं हैं।
दोहा जितना देखने में सरल लगता है उतना ही लिखने में कठिन है, दो तीन पन्नों के भाव को दो लाइन में विधान सहित लिखना गागर में सागर भरने जैसा होता है...।
मैं आभारी हूँ आदरणीय विजय राठौर सर जी का जिनकी प्रेरणा और मार्गदर्शन में तीन सौ इकतीस दोहों से यह काव्यपुस्तक तैयार हुई है।
आभार व्यक्त करती हूँ आदरणीय प्रो सतीश देशपांडे निर्विकल्प जी का जिनका मार्गदर्शन समय-समय पर मिलता रहा।
प्रिय अनुज मिलन जी का भी हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ जिन्होंने मेरे परिचय में दोहे रच दिए।
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